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21वीं सदी में दाखिल होते हुए आर. लेवी और के. राजोपाध्याय ने 829 पन्नों की विशालकाय पुस्तक लिखी – ‘मेसोक़ॉस्मः हिंदुइज़्म ऐंड दि ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ अ ट्रैडीशनल नेवार सिटी इन नेपाल’ (बर्कलीः यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलीफ़ोर्निया प्रेस, दिल्लीः मोतिलाल बनारसीदास)।
वे उसे “निबंध” कहते हैं। मैं उसे एक मानचित्र मानता हूँ। वे इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह नेपाल के प्राचीन शहर भक्तपुर का एक “तुलनात्मक ‘मानसिक संगठन’” है।
लेवी और राजोपाध्याय बताते हैं कि किस तरह प्रत्यक्ष परोक्ष को ज़ाहिर करता है। उनके लिए, प्रत्यक्ष पर गौर करना, अर्थात् भक्तपुर शहर पर, अदृश्य को समझने के समान है, अर्थात् ब्राह्मणजनित हिंदू धर्म की दबी हुई विश्वदृष्टि को।
इस तरह, यह पुस्तक “शहर के व्यापक ‘धार्मिक’ जीवन से संबंधित है और इसलिए यह व्यक्तियों के माइक्रोकॉस्म और सांस्कृतिक मैक्रोकॉस्म – खगोल, जिसके केंद्र में शहर बसा है – के बीच एक मेसोकॉस्म बनाती है, एक सुसंगठित सार्थक दुनिया।”
राजोपाध्याय “भक्तपुर के तलेजु मंदिर के ब्राह्मण पुरोहित हैं। यह कभी इसके नेवार राजा का मंदिर था और आज भी शहर के नागरिक धर्म का केंद्र है।”
इसलिए लेवी के लिए, “भक्तपुर की नागरिक व्यवस्था का बौद्धिक मानचित्र केवल किसी भावुक पश्चिमवासी का नहीं है।” बल्कि “यह प्रतीकात्मक व्यवस्था के विषय में यहाँ के स्थानीय विशेषज्ञ का है ... उनकी अपनी प्रस्तुति, उनके अपने बिंब। भक्तपुर के लिए, यह परिकल्पना एक शक्ति है जो व्यवस्था स्थापित करने में सहायक होती है।”
“अछूत इस बारे में कुछ भी सोचें, यह इनकी (ब्राह्मणों) की परिकल्पनाएँ हैं जो जीवन के ढाँचे का निर्माण करती हैं” (पृ. 7, 9)।
लेवी–राजोपाध्याय के मानचित्र दर्शाते हैं कि भक्तपुर में आध्यात्मिक, सामाजिक दर्जा और स्थानिक स्थितियाँ वैदिक विश्वदृष्टि के अनुसार हैं और जो अछूतों द्वारा दूषित होने का पालन करते हैं (पृ. 154–155, 160)।
जाति व्यवस्था के सिद्धांतानुसार शुद्ध लोग शुद्ध स्थानों पर रहते हैं। दूषित लोग दूषित स्थानों पर रहते हैं।
इसलिए, ब्राह्मण और राजपरिवार के लोग भक्तपुर के शुद्ध केंद्र में रहते हैं। उनके रहने की जगह उनके शुद्ध कर्मों से आरोपित है (पृ. 172)।
पिछड़ी जातियाँ वे हैं जो “शहर के (कर्म-आधारित नैतिक) प्रदूषण को अंदर से सोख लेती हैं।” वे शहर के उन्हीं स्थानों पर रह सकती हैं जो उन्हें दी गई हैं (पृ. 171, 179)।
इस प्रकार, पिछड़ी जातियाँ, अछूतों की बस्तियों के साथ, केवल उन्हीं स्थानों पर रह सकती हैं जो शहर की प्रतीकात्मक सीमाओं से बाहर हैं (पृ. 164)।
सदियों से लेकर आजतक खतरनाक दैवीय शक्तियाँ (पृ. 293–340) और वर्चस्ववादी ब्राह्मण पुरोहितों (पृ. 341–374) ने प्रदूषण, खानपान और घृणा की सुसंस्कृत समझ को कायम रखा है (पृ. 375–397)।
भक्तपुर में हर किसी को अपनी जगह का एहसास है। और हर कोई अपनी जगह पर ही बना रहता है। उनके जीवनों का ढाँचा ऐसा ही है – वेदों से पुष्टिकृत, ब्राह्मणों द्वारा तैयार, मनु के आदेश मानता, जाति नियंत्रत और जिसका लेखा लेवी–राजोपाध्याय ने पेश किया है।
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